बुद्ध को अपने संन्यासियों के लिए मनोचिकित्सा की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी; वे लोग भोले-भाले थे परंतु इन 25 शताब्दियों में, लोगों ने अपना भोलापन खो दिया है, वे बहुत पंडित हो गए हैं। अस्तित्व के साथ उनका नाता टूट गया है। धरती से उनके पांव उखड़ गये हैं।

मैं पहला व्यक्ति हूँ जो चिकित्सा का प्रयोग कर रहा है परंतु मेरी अभिरूचि चिकित्सा में नहीं वरन ध्यान में है ..... वैसे ही जैसे चुआंगत्सु या गौतम बुद्ध की थी। उन्होंने कभी चिकित्सा का प्रयोग नहीं किया क्योंकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। लोग बस केवल तैयार थे; और तुम ज़मीन साफ़ किए बिना गुलाब की पौध लगा सकते थे। ज़मीन पहले ही तैयार थी। इन 25 शताब्दियों में मनुष्य इतने कचरे से, अवांछित घास-पात से भर गया है, उसके अस्तित्व में इतने अवांछित घास-पात उग आया है कि मैं चिकित्सा का प्रयोग केवल ज़मीन की सफ़ाई के लिए कर रहा हूँ, घास-पात, जड़ों, को निकालने के लिए कर रहा हूँ ताकि पुरातन मानव तथा आधुनिक मनुष्य के मध्य का फ़ासला समाप्त किया जा सके।

आधुनिक मनुष्य को उतना ही निर्दोष बनना है जितना पुरातन मानव था, उतना ही सरल, उतना ही सहज। उसने वे सारे महान गुण खो दिए हैं। चिकित्सक को उसकी सहायता करनी पड़ेगी - परंतु उसका कार्य केवल एक भूमिका है। यह साध्य नहीं है। अंतिम छोर तो ध्यान होगा।
 

ओशो: द ग्रेट पिल्ग्रिमेज़: फ्राम हियर टु देयर, #27