हम जो भी करते हैं, वह मन का पोषण है। मन को हम बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, हमारा संग्रह, सब हमारे मन को मजबूत और शक्तिशाली करने के लिए है। बूढ़ा देखें, बूढ़ा आदमी कहता है, मुझे सत्तर साल का अनुभव है। मतलब? उनके पास सत्तर साल पुराना मजबूत मन है। और जैसे शराब पुरानी अच्छी होती है, लोग सोचते हैं, पुराना मन भी अच्छा होता है। वैसे शराब और मन में कुछ तादात्म्य है, एकरसता है। जैसे शराब और नशीली हो जाती है, वैसे ही मन जितना पुराना होता है, उतना नशीला हो जाता है। चेतना नहीं बदलती, चेतना तो वही बनी रहती है। मन की पर्त चारों तरफ घिर जाती है। मांग वही बनी रहती है, वासना वही बनी रहती है। शरीर सूख जाता, वासना हरी ही बनी रहती है।

नहीं, अनुभव वगैरह से कुछ नहीं। जिसको संसार का अनुभव कहते हैं, वह मन का पोषण है सिर्फ। संन्यासी अ-मन की तरफ चलता। गृहस्थ मन की तरफ चलता।
सभी लोग मन लेकर पैदा होते हैं, लेकिन धन्य हैं वे, जो मन के बिना मर जाते हैं। सभी लोग मन लेकर जन्मते हैं, लेकिन अभागे हैं वे, जो मन को लेकर ही मर जाते हैं। फिर जीवन में कोई फायदा न हुआ। फिर यह यात्रा बेकार गई। अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु समाधि बन जाती है। और अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु के बाद फिर दूसरा जन्म नहीं होता, क्योंकि जन्म के लिए मन जरूरी है। मन ही जन्मता है। मन ही अपूर्ण वासनाओं के कारण, जो वासनाएं पूरी नहीं हो सकीं, उनके लिए पुनः-पुनः जन्म की आकांक्षा करवाता है। जब मन ही नहीं रहता, तो जन्म नहीं रहता। मृत्यु पूर्ण हो जाती है।

हम सब भी मरते हैं, हम अधूरे मरते हैं, क्योंकि वहां जन्म की आकांक्षा भीतर जीती चली जाती है। वह जन्म की वासना फिर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। संन्यासी जब मरता है, तो पूरा मरता है—टोटल डेथ। शरीर ही नहीं मरता, मन भी मरता है। भीतर कोई और जीने की वासना नहीं रह जाती है। और जो पूरा मर जाता है, वह उस जीवन को उपलब्ध हो जाता है, जिसका फिर कोई अंत नहीं।
लेकिन मार्ग क्या है? मार्ग है अ-मन, नो-माइंड। धीरे-धीरे मन को गलाना, छुड़ाना, हटाना, मिटाना है। ऐसा कर लेना है कि भीतर चेतना तो रहे, मन न रह जाए। चेतना और बात है। चेतना हमारा स्वभाव है। मन हमारा संग्रह है।

इसलिए दुनिया जितनी सुशिक्षित और सभ्य होती जाती है, ध्यान उतना ही मुश्किल होता चला जाता है। क्योंकि सुशिक्षा और सभ्यता का मतलब क्या है? एक ही मतलब है कि ट्रेनिंग आफ द माइंड। मन और ट्रेण्ड हो जाता है। इसलिए जितना सुशिक्षित और जितना सभ्य होता जाता है मनुष्य, उतना ही मन से छूटना मुश्किल होता जाता है, क्योंकि मन का इतना प्रशिक्षण हो जाता है।

हमारी सारी शिक्षा, हमारी सारी व्यवस्था, हमारा सारा अनुशासन मन की तैयारी है मजबूती के लिए। कि बाजार में मन सफल हो सके, कि धंधे में मन सफल हो सके, कि संघर्ष में, प्रतियोगिता में, प्रतिस्पर्धा में मन सफल हो सके, तो उसको हम ट्रेण्ड कर रहे हैं। और ऋषि तो उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, मन को विसर्जित करना है, डिसपर्स द माइंड।

यह ठीक है। अगर संसार में गति करनी हो, तो मन प्रशिक्षित होना चाहिए। अगर परमात्मा में गति करनी हो, तो मन विसर्जित होना चाहिए। अगर पदार्थ को पाने जाना हो, तो बहुत सुशिक्षित मन चाहिए। सुआयोजित, सुसंगठित, वेल आर्गनाइज्ड मन चाहिए। लेकिन अगर परमात्मा में जाना हो, तो मन चाहिए ही नहीं—शिक्षित-अशिक्षित कोई भी नहीं, संगठित-असंगठित कोई भी नहीं—मन चाहिए ही नहीं।

बढ़ता कैसे है मन? बढ़ने का ढंग क्या है मन का? उसे समझ लें, तो घटने का ढंग खयाल में आ जाए। बढ़ता कैसे है मन?
मन को हम सहारा देते हैं, पहली बात। वी कोआपरेट विद इट। रास्ते से गुजर रहे हैं, भूख बिलकुल नहीं है, लेकिन रेस्तरां दिखाई पड़ गया। मन कहता है, भूख लगी है। पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ने लगते हैं। पूछते भी नहीं अपने से कि भूख तो जरा भी न लगी थी, जब तक यह बोर्ड नहीं दिखाई पड़ा था। यह बोर्ड दिखाई पड़ने से भूख लगती है! यह मन है। मन से भूख का कोई संबंध नहीं है, स्वाद की आकांक्षा है। मन को प्रयोजन नहीं है शरीर से, मन को स्वाद से प्रयोजन है।

तो भूख तो बिलकुल नहीं लगी थी, लेकिन इसको देखकर भूख लग गई। यह भूख झूठी है। अब आप अगर पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ाते हैं, तो मन को आप बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं।

सोच से, विवेक से खड़े होकर ठहर जाएं एक क्षण। भीतर खोजें, भूख है? एक क्षण भी अगर रुक सकें, तो रेस्तरां में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि मन कितना ही शक्तिशाली दिखाई पड़े, बहुत निर्बल है विवेक के सामने। लेकिन विवेक हो ही न, तो फिर मन बहुत सबल है। जैसे अंधेरा कितना ही हो, एक छोटा सा दीया पर्याप्त है। हां, दीया हो ही न, तो अंधेरा बहुत सघन है। एक क्षण के लिए भी विवेक, तो पैर ठहर जाएंगे। शरीर में कहीं कोई कामवासना की लहर न थी, एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई, या सुंदर पुरुष दिखाई पड़ गया और लहर उठ गई। यह मन है। इसलिए आदमी को छोड़कर इस पृथ्वी पर कोई भी जानवर सेक्सुअलिटी, कामुकता से पीड़ित नहीं है। कामवासना है, कामुकता नहीं है। सेक्स है, सेक्सुअलिटी नहीं है। इसलिए मनुष्य को छोड़कर सभी जानवरों का सेक्स पीरिआडिकल है। उसकी एक अवस्था है। वर्ष में महीने, दो महीने, तीन महीने काम आता है, बाकी नौ महीने काम से रिक्त हो जाते हैं। लेकिन आदमी चौबीस घंटे कामुक है—चौबीस घंटे, तीन सौ पैंसठ दिन! और दुखी होता है कि साल में तीन सौ पैंसठ दिन ही क्यों होते हैं! थोड़े ज्यादा भी हो सकते थे, ऐसी इतनी कृपणता की क्या जरूरत थी?

क्या बात क्या होगी? मनुष्य अकेला कामवासना को मन से जी रहा है, शरीर से नहीं। शरीर से सारे पशु जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं, वृक्ष जी रहे हैं, सारी प्रकृति जी रही है, मनुष्य मन से भी जी रहा है। तो कामवासना तो प्राकृतिक है, लेकिन कामुकता विकृति है। कामवासना से ऊपर उठ जाना तो परम क्रांति है। लेकिन आदमी कामवासना से भी नीचे गिर गया है, वह कामुकता में है। सेक्स से भी नीचे, सेक्सुअलिटी में है। मन है। तो जब एक सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष को देखकर मन में कामवासना जगने लगती है, तब एक क्षण खड़े हो जाना और कहना कि यह बायलाजिकल है, यह कहीं कोई जैविक-प्राण की कोई गति है या मन का ही खेल है?

मन का ही खेल है। और जहां-जहां मन का खेल दिखे, डोंट कोआपरेट विद इट, नान-कोआपरेशन विल डू। सहयोग न करें। असहयोग। सिर्फ खड़े रह जाएं और कहें कि यह मन की बात है। एकदम गिर जाएगी। और ऐसे मन क्षीण होगा, नहीं तो सहयोग से मन बढ़ता चला जाएगा। बैठे हैं खाली। मन बेकार के विचार कर रहा है, जिनसे कुछ लेना-देना नहीं; और आप उसमें भी सहयोग दिए चले जा रहे हैं। रुकें और कहें कि इस सबकी क्या जरूरत है? यह सब मैं क्या कर रहा हूं? यह कैसा पागलपन है, जो मेरे भीतर मैं ही चलाता हूं? असहयोग—और मन धीरे-धीरे विसर्जित होता है। और अगर चौबीस घंटे असहयोग चले और उसके साथ ध्यान हो, तो अ-मन में गति हो जाती है।
 

ओशो: निर्वाण उपनिषद, #10