समानता बिलकुल नहीं है। फर्क ही नहीं है, विपरीतता है, बुनियादी भेद है। जिसे भावातीत ध्यान कहा जा रहा है वह साधारण मंत्र-योग है, नाम-जप है। अगर आप किसी भी शब्द का मन के भीतर जाप करते हैं तो तंद्रा पैदा होती है, हिप्नोसिस पैदा होती है, निद्रा पैदा होती है और आप गहरी नींद में खो जाते हैं। उससे बेहोशी आ सकती है, आती है। श्री महेश योगी के ध्यान की जो प्रक्रिया है वह ट्रैंक्वेलाइजर जैसी है, नींद लाने की दवा जैसी है।

मैं जिसे ध्यान की प्रक्रिया कह रहा हूं वह एक्टिवाइजर जैसी है, जगाने जैसी है, बेहोशी तोड़ने जैसी है। क्योंकि तीन चरण में आप इतना श्रम लेते हैं—आपके खून की गति बढ़ती है, आपके शरीर में आक्सीजन की मात्रा बढ़ती है, आपके शरीर की सक्रियता बढ़ती है, आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा जागती है—कि निद्रा तो असंभव है। इन तीन चरणों में आप इतने सक्रिय होते हैं...और पूरी तरह भीतर जागरूक रहना पड़ता है, साक्षी रहना पड़ता है, जो भी हो रहा है। जब आप श्वास ले रहे हैं तब आप श्वास के साक्षी हैं, जब नाच रहे हैं तब नाचने के साक्षी हैं, जब ‘मैं कौन हूं?’ पूछ रहे हैं तब उसके साक्षी हैं और जब चौथे चरण में आते हैं तब जो भी घटना घट रही है—प्रकाश की, आनंद की, परमात्मा की—उसके साक्षी हैं। साक्षी चारों ही चरण में आपको रहना है। इसलिए आपके बेहोश होने की, सम्मोहित होने की कोई संभावना नहीं है। हां, अगर आप साक्षी न रह जाएं तो यह प्रयोग जो है—यह प्रयोग या कोई भी प्रयोग जिसमें साक्षी न रह जाएं आप—वह आपको सम्मोहन में ले जाएगा, वह आपको हिप्नोटिज्म में ले जाएगा, आप मूर्च्छित हो जाएंगे।

होश बना रखना जरूरी है। ध्यान का अनिवार्य तत्व है: होश, अवेयरनेस। वह पूरे समय होना चाहिए। अगर वह एक क्षण को भी खोता है तो आप समझिए कि आप ध्यान की प्रक्रिया से कहीं और हट गए हैं। उसके खोने की कोई जरूरत नहीं।
 

ओशो: जो घर बारे आपना, #5