बोलने के लिए शब्द के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है—साधारणतः। शब्द से ही बोला जाएगा। और फिर भी यह सत्य है कि शब्द से बोला नहीं जा सकता। ये दोनों बातें ही सत्य हैं। शब्द से ही बोला जाएगा, यह हमारी परिस्थिति है। यानी जिस सिचुएशन में आदमी है उसमें शब्द के अतिरिक्त और संवाद का कोई उपाय नहीं है। या तो हम आदमी की परिस्थिति बदलें। तो सिर्फ गहरे साधकों से बिना शब्द के बोला जा सकता है। लेकिन गहरी साधना में उनको ले जाने के पहले भी शब्दों का उपयोग करना पड़ेगा। एक घड़ी आ सकती है बहुत बाद में कि बिना शब्द के बोला जा सके। लेकिन वह घड़ी आएगी बहुत बाद में, वह है नहीं। जब तक वह घड़ी नहीं है तब तक शब्द से ही बोलना पड़ेगा। निःशब्द में ले जाने के लिए भी शब्द से बोलना पड़ेगा। यह परिस्थिति है, सिचुएशन है। लेकिन सिचुएशन खतरनाक है।

शब्द से ही बोलना पड़ेगा और यह जानते हुए बोलना पड़ेगा कि शब्द अगर पकड़ लिए गए तो जो हम प्रयास कर रहे थे वह व्यर्थ हो गया। हम प्रयास कर रहे थे कि निःशब्द में ले जाएं, बोलें शब्द से। यह मजबूरी थी, कोई उपाय न था। अगर शब्द पकड़ लिए गए तो प्रयोजन व्यर्थ हो गया, क्योंकि ले जाना था निःशब्द में। इसलिए शब्द से बोल कर और शब्द के खिलाफ निरंतर बोलना पड़ेगा, वह भी शब्द में ही बोलना पड़ेगा। उसका भी कोई उपाय नहीं है। चुप हुआ जा सकता है, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। वैसे लोग भी हुए हैं जो इस परिस्थितिगत कठिनाई से चुप हो गए। उनके चुप होने से वे तो झंझट के बाहर हो गए, लेकिन जो उनके पास था वह दूसरों तक न पहुंच पाया।

मेरे चुप हो जाने में मुझे कोई अड़चन नहीं है। मैं चुप हो जा सकता हूं। और कोई आश्चर्य नहीं कि कभी हो जाऊं! क्योंकि जो कर रहा हूं वह करीब-करीब, जिसको कहना चाहिए इम्पासिबल एफर्ट है, वह असंभव को संभव बनाने की चेष्टा है।

लेकिन मेरे चुप हो जाने से कुछ हल नहीं होता। आप तक कोई संवाद नहीं पहुंचता। खतरा फिर वही का वही है। पहले शब्द पकड़े जा सकते थे। उनसे डर था कि शब्द पकड़ जाएं तो जो मैं पहुंचाना चाहता था वह नहीं होगा। अब चुप्पी रह जाएगी। अब पहुंचाने की बात ही खतम हो गई। लेकिन पहले में एक संभावना थी कि कुछ लोगों तक पहुंच जाएगा। सौ से बात करूंगा तो एक तो शब्द को बिना पकड़े जा सकेगा; निन्यानबे प्रयास व्यर्थ होंगे, एक तो सार्थक हो जाएगा! चुप रह कर वह एक भी संभव नहीं रह जाता। उसका भी उपाय नहीं रह जाता। इसलिए व्यर्थ चेष्टा करनी पड़ती है।

और मजे की बात यह है कि जिसको भरोसा है कि शब्द से कहा जा सकता है, वह बहुत ज्यादा नहीं बोलेगा। उसने थोड़ा बोल दिया, बात खत्म हो गई। लेकिन जिसे भरोसा नहीं है कि शब्द से कहा जा सकता है, वह बहुत बोलेगा। क्योंकि कितना ही बोले उसे पक्का पता है कि अभी भी पहुंचा नहीं। वह और बोलेगा, और बोलेगा, और बोलेगा। यह जो बुद्ध का चालीस साल निरंतर बोलना है सुबह से सांझ तक, यह इसलिए नहीं है कि शब्द से कहा जा सकता है इसलिए इतना बोल रहे हैं। यह इसलिए है कि हर बार बोल कर पता लगता है कि अभी भी तो नहीं पहुंचा, फिर बोलो, और ढंग से बोलो, किसी और रास्ते से बोलो, कोई और शब्द का उपयोग करो।

इसलिए चालीस साल निरंतर बोलने में बीत गए। फिर डर भी लगता है कि जब चालीस साल निरंतर बोलूंगा तो कहीं ऐसा न हो कि लोगों को शब्द पकड़ जाएं, क्योंकि चालीस साल से शब्द ही तो दे रहा हूं! इसलिए फिर निरंतर यह भी चिल्लाते रहो कि शब्द पकड़ मत लेना। पर यह स्थिति है, और इस स्थिति के बाहर जाने के लिए सिवाय इसके कोई मार्ग नहीं है। शब्द से बाहर जाने के लिए शब्द का ही उपयोग करना पड़ेगा।
 

ओशो: मै कहता आंखन देखी, #1